2021, Vol. 3, Issue 3, Part D
जायसीकृत बारहमासा का सौन्दर्य
Author(s): डाॅ0 विजय कुमार
Abstract: बारहमासा मौखिक परम्परा में लोक हृदय की श्रृंगारिक अभिव्यक्ति है जिसकी रागात्मकता से प्रभावित हो हिन्दी के आदिकालीन कवियों ने इसे एक साहित्यिक विधा के रूप में प्रतिष्ठित किया है। यह षट् ऋतु वर्णन की तरह ही होता है परन्तु प्रभावोत्पादकता में उससे बढ़कर होता है। जायसी से पूर्व ही लोकचित्त वृत्ति के पारखी कवि विद्यापति ने मैथिली में सुन्दर बारहमासा की रचना की1 -
मास अषाढ़ उनत नव मेघ।
पिया विसलेख रहओं निरथेघा।।
कोन पुरूष सखि कोन से देस।
करब मायँ वहाँ जोगिनी भेस।।
पिद्य़ापति पदावली के उपरान्त ‘बीसलदेव रासो’, ‘चन्दायन’ तथा अन्य सूफी कव्यों में भी बारहमासा की योजना की गई है। परन्तु अभी भी इसकी गीतात्मकता और इसकी भाव-प्रवणता साहित्य की अपेक्षा लोककंठ के माध्यम से प्रकट होती है जिसका ऐतिहासिक स्रोत लोकभाषा है। भोजपुरी के शेक्सपीयर कहे जानेवाले कवि भिखारी ठाकुर का यह बारहमासा आज भी लोकप्रिय है:-
आवेला आसाढ़ मास, लागेला अधिक आस।
बरखा में पिया, रहितन पासवा बटोहिया।।
भोजपुरी में महेन्द्र मिश्र द्वारा लिखित बारहमासा लोकगायकों का कंठहार बन गया है। बिहार कोकिला- शारदा सिन्हा ने ‘‘उधो, बारि रे बयस बीतल जाय हे कन्हैया के मनाय दिया ना’’ गाकर बारहमासा के जादुई प्रभाव से, सबका मन मोह लिया है।
बारहमासा में साल के बारहो महीने की उद्दीपक प्रकृति, उसकी निष्ठुरता, उत्सव-त्योहार आदि का चित्रण करते हुए विरह-भाव की अभिव्यक्ति होता है और इसका आरंभ प्रायः आषाढ़ मास से होता है। आषाढ़ का आगमन जेठ की जलती धरती की प्यास बुझाने के लिए होता है और यह मास बीजवपन का उपयुक्त काल भी होता है। इसीलिए प्रोषित पतिका आषाढ़ की प्रतीक्षा बेसब्री से करती है, पति की राह हेरती कि वे आते ही होंगे, क्योंकि ऐसे समय में कोई अपनी वियोगिनी की उपेक्षा नहीं कर सकता। काले-काले मेघ यह मौन संदेश पहुँचा देते हैं कि उसके वियोग का अन्त होने ही वाला है। निश्चित रूप से आषाढ़ मास कामना को जागृत करने वाला होता है और इसीलिए जायसी ने ‘पद्मावत’ में ‘नागमती वियोग खंड’ के अन्तर्गत ‘बारहमासा’ का आरंभ आषाढ़ मास से किया है।
DOI: 10.33545/27068919.2021.v3.i3d.998Pages: 313-316 | Views: 525 | Downloads: 165Download Full Article: Click Here