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2021, Vol. 3, Issue 1, Part C


मानवाधिकार और समाजः समाजशास्त्रीय विमर्श


Author(s): ऋतु जैन

Abstract: यह शोध पत्र मानवाधिकारों की सामाजिक अवधारणा एवं उनके समाजशास्त्रीय विश्लेषण पर केन्द्रित है। मानवाधिकार केवल संवैधानिक या अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह समाज में व्यक्ति की गरिमा, समानता और स्वतंत्रता की व्यावहारिक व्याख्या भी करते हैं। समाजशास्त्र की दृष्टि से मानवाधिकारों की उपयोगिता को सामाजिक संरचना, वर्ग, जाति, लिंग, धर्म और संस्कृति के साथ संबद्ध करते हुए समझा जा सकता है। यह शोध मानवाधिकारों को एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखता है जो समाज में शक्ति, संसाधन और मान्यता के असमान वितरण को चुनौती देता है। 
इस लेख द्वारा यह स्पष्ट करना है कि कैसे समाज के विभिन्न वर्गों, विशेषकर महिलाएँ, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक और एलजीबीटीक्यू $ समुदाय, मानवाधिकारों के हनन का शिकार होते हैं और किस प्रकार सामाजिक संस्थाएँ, जैसे राज्य, परिवार, न्यायपालिका, मीडिया और शिक्षा प्रणाली, मानवाधिकारों की रक्षा या उल्लंघन में भूमिका निभाती हैं। इसके साथ ही यह शोध अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार घोषणाओं, भारतीय संविधान में मानवाधिकारों की स्थिति, तथा भारत में मानवाधिकार आंदोलनों का सामाजिक प्रभाव भी विश्लेषित करता है। 
समाजशास्त्रीय विमर्श के माध्यम से यह लेख यह तर्क प्रस्तुत करता है कि मानवाधिकार केवल वैधानिक प्रावधान नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना, नैतिकता और सक्रिय नागरिकता के माध्यम से ही सुनिश्चित किए जा सकते हैं। मानवाधिकारों की स्थापना तभी संभव है जब समाज में संरचनात्मक समानता और संस्कृति में करुणा और सहभागिता की भावना हो।


DOI: 10.33545/27068919.2021.v3.i1c.1500

Pages: 689-692 | Views: 104 | Downloads: 25

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International Journal of Advanced Academic Studies
How to cite this article:
ऋतु जैन. मानवाधिकार और समाजः समाजशास्त्रीय विमर्श. Int J Adv Acad Stud 2021;3(1):689-692. DOI: 10.33545/27068919.2021.v3.i1c.1500
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