International Journal of Advanced Academic Studies
2020, Vol. 2, Issue 3, Part L
भाषिक अस्मिता का भारतीय परिप्रेक्ष्य
Author(s): डाॅ. नीरव अडालजा
Abstract: भाषा अस्मिता का एक आधारभूत तत्व है। साझी संस्कृति, धर्म और स्मृतियां भी उसके सहारे अस्मिता निर्माण, संवर्धन और संवहन में समर्थ होती है। भाषा की लचीली और अचूक संप्रेषण क्षमता अस्मितापरक गतिविधियों के लिए उसे बेजोड़ माध्यम बना देती है। अस्मिता शोषण के विरुद्ध जिस संघर्ष के सहारे विकसित होती है वह भी भाषा के सहारे खड़ा होता है। औपनिवेसिक शोषण के विरुद्ध भारतीय अस्मिताओं के विकास के साथ ही भाषाओं एवं उससे संबंधित साहित्य का भी तेजी से विकास हुआ। भारत में एक भाषा आधारित अस्मिताएं भी हैं और बहु भाषिक अस्मिताएं भी। प्रायः बहुभाषिक अस्मिता एक वृहद् अस्मिता होती है जिसके भीतर की अस्मिताओं में सहचर्य के साथ ही संघर्ष की स्थितियां भी निर्मित होने की संभावना होती है। किसी भाषा का अस्मिता का तत्व बनना उसके व्याकरणिक ढाँचे या साहित्यिक श्रेष्ठता के बजाय संप्रेषणीयता पर अधिक निर्भर करती है। अस्मिता की पहचान बनने के बाद भाषा जरूर मानक स्वरूप तथा साहित्यिक श्रेष्ठता की ओर अग्रसर होती है। कालांतर में यह भाषा अस्मिता पर होने वाले शक्तिसाली सत्ता के आघातों के विरुद्ध संघर्ष का माध्यम बनकर संरक्षक की भूमिका में आ जाती है। किंतु यह स्मरण रखना आवश्यक है कि भाषा अस्मिता का प्रमुख स्तंभ है एकमात्र नहीं। आधुनिक अस्मिताओं ने भाषा के महत्व को पहचाना है तथा अस्मितागत संघर्षों के परिहार के लिए अपनी भाषा में जरूरी परिवर्तन किए हैं।
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डाॅ. नीरव अडालजा. भाषिक अस्मिता का भारतीय परिप्रेक्ष्य. Int J Adv Acad Stud 2020;2(3):826-829.