शास्त्रीय शिक्षा पद्धति का स्वरूप
Author(s): किरण कुमारी
Abstract: भारतीय संगीत के दो प्रकार है- शास्त्रीय संगीत और भाव संगीत। शास्त्रीय संगीत उसके कहते हैं जिसका एक नियमित शास्त्र होता है, जिसमें कुछ विशेष नियमों का पालन करना अनिवार्य है जैसे गायन में राग के अनुकूल स्वरों को लगाना, अलाप तान, बोलतान, सरगम इत्यादि को सफाई और तैयारी के साथ सुन्दर ढ़ंग से पेश करना, गाने-बजाने का निश्चित क्रम होना, स्वरलय, तालबद्ध होना, उच्चारण सही होना इत्यादि-इत्यादि। इन्हें आत्मसात करते हुए ‘‘आनंद की सृष्टि’’ करना ही हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का मूल स्वरूप और उद्देश्य है।
भाव संगीत में शास्त्रीय संगीत के समान न कोई नियमों का बंधन होता हे न कोई शास्त्र। इसका एकमात्र उद्देश्य है कानों को अच्छा लगना। भाव संगीत अधिकतर दादरा और कहरवा जैसे छोटे तालों में निबद्ध होते हैं। इसकी रचना भावानुकूल और आकर्षक होती है। विभिन्न वाद्यों का प्रयोग श्रृंगार रस के हृदय-स्पर्शी शब्द और सुरीले कंठ साधारण जनता को स्वतः ही आकर्षित कर लेते हैं और उन्हें झूमने पर मजबूर कर देते हैं।
हम शास्त्रीय गायन की चर्चा करें तो अधिकांश संगीत छात्रों के साथ होता यह है कि शास्त्रीय संगीत के नियमों को सीखते-सीखते वे उसके मूल उद्देश्य से भटक जाते हैं। वे शास्त्रीय संगीत के शास्त्र यानि व्याकरण के चक्कर में इतना फँस जाते हैं कि संगीत की रंजकता को ही भूल जाते हैं और वास्तविक उद्देश्य के बदले वही उनका मूल उद्देश्य बन जाता है। उनमें केवल रसहीन गलाबाजी दिखाई पड़ने लगती है और आमश्रोता उनसे और शास्त्रीय संगीत से दूर होते चले जाते हैं। आवश्यकता है जनसामान्य में शास्त्रीय संगीत के प्रति अभिरूचि पैदा करने की। आम श्रोता शास्त्रीय संगीत से जुड़ सके, उसे समझ सकें और उसका आनंद उठा सकें ऐसे प्रयासों की।
DOI: 10.33545/27068919.2020.v2.i1f.399Pages: 309-311 | Views: 1240 | Downloads: 689Download Full Article: Click Here