हिन्दी का विकास और अर्थसंसर्ग
Author(s): डाॅ० सौरभ
Abstract: सम्बद्ध रूपों को आधार बनाकर संस्कृत और हिन्दी की जिन विषम चालों की बात कही गई है उनके विषय में यह ज्ञातव्य है कि प्राचीनकाल की भारतीय आर्यभाषाओं में अपनी लम्बी विकास यात्रा के क्रम में अनेक बार अपनी चाल बदली और उसकी चाल में आए बदलाव के कारण ही बोलचाल की वैदिक भाषा लौकिक संस्कृत बनी और लोककण्ठ की संस्कृत भाषा प्राकृत अपभ्रंशो के रूप में अस्तित्त्व में आई अपभ्रंशों तथा आधुनिक आर्यभाषाओं के संक्रमणकाल में आकर फिर उसकी गति बदली जिसे जनपदीय आधार पर विभिन्न आधुनिक आयभाषाएँ अपनी-अपनी जनपदीय विशेषताओं के साथ प्रचलन में आई। हिन्दी सहित विभिन्न आधुनिक आर्यभाषाओं की संस्कृत-मूलकता का इससे बढकर और दूसरा क्या प्रमाण हो सकता है कि ध्वनि भाव प्रकृतियों तथा अन्य भाषायी तत्वों के परिवर्तन की अनेक दशाओं के बावजूद ये भाषाएँ अपने विभिन्न तत्त्वों के व्यवहार में मुख्यतः संस्कृत की दिशा का ही अनुसरण कर रही है।
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डाॅ० सौरभ. हिन्दी का विकास और अर्थसंसर्ग. Int J Adv Acad Stud 2020;2(1):270-271.