2019, Vol. 1, Issue 2, Part A
शुक्रनीति: अर्थ उपार्जन के संदर्भ में
Author(s): शेफालिका राय
Abstract: किसी भी काल खण्ड में किसी भी शासक को शासन करने एवं राज्य की आवश्यकतों को पूर्ण करने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती ही हैं। धनार्जन करने के लिए शासक नीतियों पर निर्भर होते है तथा नीतियों का निर्माण गुरु एवं मंत्री परिषद के द्वारा होता रहा हैं। पुरातन युग का विश्लेषण करे तो हमे ज्ञात होते हैं, कि मनुष्यो के ही नहीं वरन देवताओं एवं राक्षसों के भी गुरु रहे हैं। जिस प्रकार देवताओं के गुरु बृहस्पति हैं, उसी प्रकार दानवों के गुरु शुक्राचार्य माने जाते हैं। संसार में सजीवनी विद्या का ज्ञान सर्वप्रथम शुक्राचार्य को ही हुआ था और इसकी संजीवनी विद्या के कारण दानव युद्ध में मरने के बाद भी जीवित हो जाते थे । वृहस्पति का पुत्र कच भी संजीवनी विद्या सीखने के लिए शुक्राचार्य के पास गया था और उसने बड़ी सेवा करने के पश्चात् कई बार मर कर भी गुरु की कृपा से जन्म पाये तथा संजीवनी विद्या प्राप्त की। शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी ने कच से विवाह का प्रस्ताव रखा किन्तु उस सदाचारी बालक ने गुरु पुत्री होने से उसे बहिन मानकर यह सम्बन्ध नहीं चाहा। शुक्राचार्य ने शुक्रनीति में अपने आर्थिक बिचारों को बड़ी ही कुशलता से व्यक्त किया है। पाश्चात्य इतिहास लेखकों ने शुक्रनीति में कुछ अस्त्र-शास्त्रों एवं चूर्ण जैसे विस्फोटक पदार्थों को देखकर शुक्र को 18वीं शताब्दी राक्षसों के गुरु होने के कारण विधंसक सोच का माना गया है, जो सर्वथा अनुचित है क्योंकि महाभारत के शान्ति पर्व और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में शौनक शुक्राचार्य का नाम आता है। अतः शुक्राचार्य ईसा से 4-5 हजार वर्ष पूर्व ही निर्णीत होते हैं। उपर्युक्त शोध पत्र में शुक्राचार्य द्वारा दिए गए आर्थिक नीतियों की चर्चा कि गयी तथा वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनका पुनर्वलोकन किया गया हैं। यह शोध पत्र द्वित्तीयक आंकड़ों पर आधारित हैं।
DOI: 10.33545/27068919.2019.v1.i2a.1491Pages: 53-56 | Views: 106 | Downloads: 19Download Full Article: Click Here