International Journal of Advanced Academic Studies
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2019, Vol. 1, Issue 1, Part A

प्राचीन काल में मृद्भाण्ड कला के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन


Author(s): ललित कुमार झा

Abstract: पुरातात्विक महत्त्व के स्थलों की खुदाई से प्रकाश में आये टूटे-फूटे या पूरे के पूरे भाण्ड हमारी संस्कृति की पहचान है। इनका कोई एक तरह का निर्माण काल नहीं है और यही इनकी शैलियों में एक दूसरे से भिन्नता का मूल कारण भी है। कुम्भकारों को प्राचीन विश्व का एक ऐसा शिल्पी माना जा सकता है जिनके गढ़े जाये भाण्डों के उपर कभी तरह-तरह के प्रतीक चिन्हों और प्रकृति जगत की रूमानियत का प्राणवान अंकन किया गया था। प्राक् हड़प्पन काल की सस्कृतियों को प्रतिविम्बित करनेवाला एकमात्र साक्ष्य मृदभाण्ड ही है। यह शिल्प की कलात्मकता के साथ-साथ उसकी विभिन्न शैलियों का भी द्योतक कहा जा सकता है। थोडे से परिवर्तन के साथ इन्हीं शैलियों का अनुसरण सिन्धु सभ्यता के साक्षी बने भाण्डों के निर्माण में भी किया जाना प्रमाणित होता है। संस्कतियों में अनुकरण करते रहने की प्रवृति सतत् चलती रहती है इसीलिए यदि बाद वाली संस्कृति अपने पूर्व की संस्कृति के कुछ मामलों में अनुसरण करती है तो इसे लेकर हमें कोई आश्चर्य नहीं होना पाहिये। निश्चय ही सिन्धु सभ्यता और संस्कृति को उसकी पूर्वगामिनी संस्कृति ने सिन्धु सभ्यता के विध्वंस के चाहे जैसे भी कारण रहे हों पर शताब्दियो से इसकी विशिष्टताओं से यह उपमहाद्वीप जगमगाता रहा है। इसका प्रसार क्षेत्र बहुत ही व्यापक रहा है। ऐसे कई स्थल भी प्रकाश में आये हैं जहाँ कभी भौतिक जीवन का आरंभ इसी के पर्दापण के साथ हुआ था । यह भी पता चलता है कि ऐसे स्थलों पर नयी-नयी प्रौद्योगिकी का विकास कुछ शताब्दियों के अन्तराल से हुआ था। पजाब के रोपड़ जिले में हड़प्पन संस्कृति और चित्रित घूसर भाण्ड (पी0जी0 वेयर) वाली सस्कृति के बीच एक तरह का सम्पर्क बनता हुआ दिखायी देता है । धग्गर धाटी के काली बंगन की तरह यहाँ पहले-पहल हड़प्पन संस्कृति में रचे बसे लोगों ने अपनी बस्तियाँ कायम की थीं और उनका जब लोप हुआ तभी जाकर चित्रित घूसर भाण्ड का प्रयोग करने वाले लोगों का यहाँ पर्दापण हुआ था। इन दोनों ही तरह के साक्ष्यों का निष्कर्ष यही है कि इन स्थलों पर कुछ समय के लिए हड़पपन लोग आबाद हुए थे और फिर इनका विस्थापन उनलोगों द्वारा किया गया जिन्हें चित्रित घूसर भाण्ड का प्रयोग करने वाले तथाकथित आर्य कहा जाता है। लौह प्रौद्योगिकी का विकास भी इसी संस्कृति के विभिन्न स्तरों में हुआ था। इस प्रकार एक विशिष्ट मृदभाण्ड से जुड़ी यह संस्कृति 1500-500 ई0 पू0 के बीच विद्यमान थी।

DOI: 10.33545/27068919.2019.v1.i1a.367

Pages: 158-161 | Views: 2755 | Downloads: 2080

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How to cite this article:
ललित कुमार झा. प्राचीन काल में मृद्भाण्ड कला के विकास का ऐतिहासिक अध्ययन. Int J Adv Acad Stud 2019;1(1):158-161. DOI: 10.33545/27068919.2019.v1.i1a.367
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