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2019, Vol. 1, Issue 1, Part A


कथाकार रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ की नारी-संवेदना


Author(s): डाॅ॰ कृतार्थ शंकर पाठक

Abstract:
इतिहास पर व्यंग्य करते हुए ‘दिनकर’ जी ने लिखा था -
‘‘अंधा चकाचैंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा।
साक्षी है जिनकी महिमा का,
चन्द्र भूगोल खगोल‘‘।
वास्तव में इतिहास तो वैसे लोगों को याद करता है जिनके पास चमक होती है। रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ इन चमक दमक से आजीवन परे रहे। उन्होंने एकांत साहित्य साधना की। नाम भी कमाया। पर शायदय युग धर्म का निर्वाह नहीं कर पाये। वे राजनेताओं और समीक्षकों के मुखापेक्षी नहीं रहे। बावजूद इसके उनकी रचनाओं में जो दम है, वह उन्हें दीर्घकाल तक साहित्य में टिकाये रखेगा।
‘अंचल’ का कथा-साहित्य एक करुणावादी कवि के यथार्थ की अभिव्यक्ति है। उनकी प्रारंभिक कहानियाँ ‘तारा’ नामक कहानी-संग्रह में संगृहीत है। उनके कथा-साहित्य में रोमांटिक अनुभूतियाँ ही मुखर है। सन् 1935 में बी.ए. पास होने के बाद 1937 में उनकी ‘तारा’ कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। इन्होंने 1942ई. में एम.ए. पास किया। 1945 ई. में इनका पहला उपन्यास ‘चढ़ती धूप’ प्रकाशित हुआ। 1946ई. में दूसरा उपन्यास ‘नयी इमारत’ और 1947 ई. में हिंदी प्रचारक संस्थान से तीसरा उपन्यास ‘उल्का’ प्रकाशित हुआ। 1951 ई. में ‘मरूदीप’ जिसका नामकरण बाद में ‘रेत की हिरणी’ कर दिया गया, प्रकाशित हुआ। उपन्यासों के अतिरिक्त ‘तारा’, ‘ये वे बहुतेरे’, ‘कुँवर की दुलहन’, ‘मलंग बुआ’, ‘मरूस्थल एवं अन्य कहानियाँ’, ‘देहगाथा’, ‘क्षितिज बिम्ब’ आदि कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए।
‘अंचल’ की कथा-साहित्य का मूल स्वर नारी संवेदना है। मानव जीवन ‘काम’ प्रधान होता है। इसे लेकर जीवन में जहाँ सुख का प्रादुर्भाव होता है वहीं यह अनेक विडम्बनाओं को भी जन्म देता है। वैदिक काल में नारी को समाज में यथेष्ट सम्मान प्राप्त था। किन्तु कालान्तर में समाज पर पुरुषों का शिकंजा कसता गया और नारी के अधिकारों में कटौती होती गई। मध्यकाल में आकर नारी भोग्या-मात्र बनकर रह गई। नारी अपने सारे संबंधों में आजीवन पुरुषों के अधीन रहती है और पुरुष की स्वार्थपरता एवं भोगवादी दृष्टि के कारण उसके हाथों लीला-कमल बनकर रह जाती है। ‘अंचल’ की नारियाँ भी ऐसी ही प्रतीत होती हैं।


DOI: 10.33545/27068919.2019.v1.i1a.363

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How to cite this article:
डाॅ॰ कृतार्थ शंकर पाठक. कथाकार रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’ की नारी-संवेदना. Int J Adv Acad Stud 2019;1(1):142-144. DOI: 10.33545/27068919.2019.v1.i1a.363
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