2019, Vol. 1, Issue 1, Part A
गर्भधान संस्कार की मनोवैज्ञानिकता
Author(s): डाॅ० अशोक कुमार
Abstract: हम कह सकते है कि जिस प्रकार की सन्तान की इच्छा हो, उसी प्रकार की तैयारी माता-पिता को करनी होगी। क्योंकि आत्मा मृत्यु के पश्चात् पूर्व शरीर के विचारानुकूल या चिन्तनानुकूल या कामनाओ को ही मानता हुआ जो-जो इच्छा करता है, उस इच्छाओं के फलस्वरूप उस-उस योनि में ही प्राण ग्रहण करने के लिए सूक्ष्म शरीर को लेकर चलता है। वह पहले-पहले पिता के वीर्य में विकास पाता है, और उसके पश्चात् माता के गर्भाशय में प्रवेश करता है। इसलिए जिस प्रकार का भोजन पिता करेगा, उसी प्रकार का शरीर तैयार होगा। पथ्यकर आहार-विहार का सेवन करके स्त्री अपना और गर्भस्थ शिशु का स्वास्थ्य बनाये रखने की कोशिश करे। यह तो रही भौतिक बात। परन्तु इस भौतिक शरीर पर पिता के मन का भी प्रभाव पड़ेगा। उसमें पिता के प्रत्येक अंग से किये हुए कार्यों की प्रतिच्छाया रहेगी। अतः पिता को सोच लेना चाहिये, कि जिस प्रकार के संतान की उसे इच्छा है, उसी प्रकार का आचरण होना चाहिए। स्त्री और पुरूष जैसे आहार, व्यवहार तथा चेष्टा से संयुक्त होकर परस्पर समागम करते हैं, उनका पुत्र भी वैसे ही स्वभाव का, होता है।
जो सुधार का काम गर्भाधान के समय और गर्भ के नौ महीने में माता कर सकती है वह सृष्टि के सारे संशोधक पदार्थ या सारे सुधारक मिलकर भी नहीं कर सकते। आगामी जन्म, चिŸा में जिस प्रकार की भी वासना होती है, उनके अनुकूल पुनर्जन्म होता है। लोकोक्ति भी इस में प्रमाण है- ‘‘अन्तमता सो गता’’ अर्थात् अन्त में जैसी मति (वासना) होती है उसी के अनुकूल गति होती है। इसी तरह माता की भी मन जिस प्रकार की संतान की इच्छा करेगी तो वैसी ही संतान होगी। जाकी रहि कामना जैसी, जगत रूप देखै तिंह तैसी। इसलिए भाव ही कारण है। जिसकी जैसी भावना होती है, वैसी ही उसे सिद्धि प्राप्त होती है।
माता एक साचाँ है, माता की रूचि-परिष्कार के रूप में इन संस्कारों द्वारा उसी साँचा को सुन्दरतम बनाने का प्रयत्न करते है। माताओं अपने अन्दर आत्म शक्ति को पहचानों अपनी मानसिक बल को पहचानों और इसे क्रियान्वित करो। आहार, रोजमर्रा के व्यवहार, आदतें, विचारधारा, मानसिक बदलाव, स्थिति सभी का गर्भ पर प्रभाव पड़ता है। देवत्व का अंश अपने अंदर विकसित करने वाली हो। इसीलिए गर्भाधान से गर्भावस्था की यह अवधि बहुत ही महत्वपूर्ण है, उसका लाभ उठाना चाहिए। अपने मन की विचारधारा की दिशा आप तय कर सकती हैं। हमेशा सकारात्मक रहें, खुश रहें, प्रशन्नचित्त रहें, आनंदमय रहंे और आनन्द दायक संतान का निर्माण करें।
DOI: 10.33545/27068919.2019.v1.i1a.275Pages: 95-101 | Views: 4448 | Downloads: 3763Download Full Article: Click Here